कुछ रातों से तुमने मुझे बहुत भिगोया
कभी मसल कर कभी कुचल कर
कभी यूँ ही उछाल भी दिया
मैं सुन रहा था वो दर्द जो कहीं चुप-चाप तुम्हे सताता रहा
तुम अकेली नहीं थीं
जब कभी मचल कर मुस्कुराती थीं तुम तो तुम्हारी ख़ुशी भी जी थी मैंने
आज तुम्हारा दर्द भी जी रहा हूँ
वो कांपते हाथ
वो आँखों से गिरता गर्म पानी
वो सिसकियाँ
वो माथे पर बनी चिंतित लकीरें
वो थकी हुई निगाहें
जो नींद को ढूंढ रही हैं
मेरे पास ले आओ उन्हें
क्या पता उनकी तलाश यहीं खत्म हो जाए
जो चैन जो सुकून वो आँखें खोज रही हैं
कौन जाने उन्हें मेरे स्पर्श में मिल जाए
और क्या पता तुम्हारे सपनों की थमी उड़ान
को यहाँ पंख मिल जाएं
आओ तो सही
बस एक बार
मैं भी तनहा हूँ तुम्हारे बिना
तुम्हारी आदत सी हो गयी है मुझे शायद
सिंगार रहित
बिन आभूषण
उलझी उलझी ही आ जाओ
फिर मिल कर कुछ सपने देखेंगे
मैं तुम्हारे आंसू पौंछूंगा
और तुम मुझे सार्थक कर देना ......