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बचपन में स्कूल में हिंदी एक विषय मात्र था। अपनी मातृ-भाषा होते हुए भी अच्छी हिंदी बोलना और लिखना कठिन लगता था। पर आज भी याद है जब हरिवंश राय बच्चन जी की कविता अद्भुत आनंद देती थी। जब भी पढ़ती थी लगता था की एक नया संगीत जीवन को सुरमयी बना गया। कुछ ऐसा ही नाता है मेरा कविताओं से। भाषा की गुलामी से दूर एक अपनी ही दुनिया बना देती हैं कविताएँ। व्याकरण के बंधन में बिना बंधे कवि ह्रदय से पाठक के ह्रदय तक सहजता से पहुँचने वाले शब्दों का नाम है कविता।
आज मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ कि मुझे कुछ ऐसी सुन्दर रचनाओं को पढ़ने का अवसर मिला जो मेरे मन को सजीव और जीवन को सुशोभित कर गयीं। अमित अग्रवाल जी जो Safarnaamaa... सफ़रनामा... से अपनी एक अलग पहचान बना हम सबको सुन्दर साहित्य का उदहारण देते हैं , उन्होंने मुझे इस लायक समझा कि मैं उनकी किताब चिटकते कांचघर का पठन करूँ। मैं आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे एक ऐसा संग्रह दिया जो सदैव मेरे जीवन को आलोकित करेगा। मैं यहाँ इस पुस्तक पर अपने कुछ विचार लिख रही हूँ। आशा करती हूँ कि आप सब इस पुस्तक को अपने जीवन में सम्मिलित कर अपने जीवन को अलंकृत करेंगे।
कवि ने अपनी पुस्तक के तीन अनुभाग किये हैं - जीवन, विस्मय, एवं आभार। प्रत्येक भाग के अन्तर्गत विभिन्न विषयों पर कवि भावुकता और संवेदनशीलता से विषयों को प्रस्तुत करता है। कहीं मन की टीस का वर्णन है तो कहीं अनूठी उपमाओं से स्वयं पर गर्वित होता कवि मुस्कुराता दिखाई देता है। समय के परिवर्तन के साथ आए बदलाव कभी कवि ह्रदय को व्याकुल करते हैं तो कभी उसको अपने अतुलनीय व्यक्तित्व पर अभिमानित होने का अनुभव कराते हैं। शब्दों की प्रचुरता कवि का सबल शस्त्र है जिसमें आलोचक और मित्र, प्रेम और घृणा , असफलता और जीत, उपेक्षा और सम्मान, कृतग्यता और कृतघ्नता सब सम्मिलित हो जाते हैं।
जीवन
जिस तरह जीवन के रंग अनगिनत हैं , इस भाग की कविताओं का रस भी उन्हीं रंगों की तरह भिन्न , रोचक और मोहक है। कुछ ऐसे रूपांकन, कुछ ऐसे चित्र शब्दों के माध्यम से कवि ने चित्रित किये हैं जो सोचने पर विवश करते हैं। कभी उदासी, कभी किसी की बेरुखी, कभी खुद की असफलताएँ - इन सबका चित्रण बखूबी नज़र आता है छोटी छोटी विचारशील कविताओं में। जीवन को कभी चिटकते कांचघर तो कभी ताश के पत्तों के समान आसानी से नष्ट हो जाने वाला माना गया है।बाहरी शक्तियों के दुष्प्रभाव से टूटने का दोष जीवन की अपनी दुर्बलता को दिया गया है।
ऐसे जीवन का क्या मतलब जो बस सांस लेना जानता है - जिसकी न कोई राह है न कोई मंज़िल? जो कभी जीवन को सही अर्थ में जी ही नहीं पाया, क्या वो कभी जीवित था भी ? नीचे लिखी ये पंक्तियाँ ये प्रश्न पूछने पर मजबूर करती हैं -
समय में निरंतर परिवर्तन आता है। लिबास बदल जाते हैं , शब्दों की परिभाषाएँ भी बदल जाती हैं। नए युग के नए फैशन की वेदि पर कल की पसंद दम तोड़ देती है। पुराना फर्नीचर भी एक अतिरिक्त वस्तु की तरह बेकार हो जाता है। क्या कवि भी इस पुराने फर्नीचर की तरह इस युग में व्यर्थ, बेतुका और अनावश्यक है ? नहीं - क्या इतनी आसानी से हार मान जाएगा वो ?
'भूला गया' एक और सुंदर कविता है जिसमें अकेला पड़ा 'दीवला' एक उपेक्षित लेखक के तुलनीय है। जिस प्रकार दीवला एक कोने में पड़ा रह गया, अपनी योग्यता को जी ही नहीं पाया , उसी प्रकार एक गुणी लेखक/कवि अपनी रचनाओं के पारखी तक पहुँचने से चूक गया। कारण कोई भी हो - पाठक के ह्रदय तक पहुंचना सफल नहीं हुआ। कवि नयी रचना लिखते हुए डरता है कि कहीं फिर से वो तिरस्कृत दीवले की तरह अधूरा न रह जाए।
'लिबास' पढ़ते हुए मुझे मुल्ला नसरुद्दीन का एक किस्सा याद आ गया। 'हंग्री कोट ' नाम की एक कहानी कुछ समय पहले पढ़ी थी। किस्सा कुछ ऐसा है कि एक बार मुल्ला नसरुद्दीन किसी काम में बहुत व्यस्त होते हैं। पूरा दिन भाग-दौड़ करके बेहद थक गए होते हैं। तभी उन्हें याद आता है कि उन्हें किसी अमीर व्यक्ति के यहाँ दावत पे जाना था। मुल्ला को लगता है कि अगर वो कपड़े बदलने घर गए तो देर हो जाएगी इसीलिए वो ऐसे ही दावत में चले जाते हैं। उनके मैले कपड़ों को देख सभी उनसे मुंह मोड़ लेते हैं। यहाँ तक कि कोई उन्हें खाने के लिए भी कुछ नहीं पूछता। मुल्ला दावत छोड़ घर वापस जाते हैं और कपडे बदल कर लौटते हैं। इस बार उनके लिबास बेहद शानदार होते हैं। उनके प्रति सबका व्यवहार बदल जाता है। तभी मुल्ला खाने का एक एक व्यंजन उठा कर अपने कोट में डालते हैं - जब सब हैरान हो उनसे पूछते हैं की ये क्या हो रहा है तो मुल्ला कहते हैं की जब सादे लिबास में उनका स्वागत नहीं हुआ तो उनको समझ आ गया कि दावत कपड़ों के लिए थी उनके लिए नहीं। यह सुन कर सबको अपनी गलती का एहसास होता है।
'इश्क़' के ज़रिये कवि जीवन की एक ऐसी वास्तविकता पर ध्यान ले जाता है जो सब के जीवन का अभिन्न अंग है। समय अच्छा हो तो सब साथ देते हैं। कवि भी जब सफलता की सीढ़ी चढ़ रहा था तो बहुत आये उसके पास पर जब समय प्रतिकूल हुआ तो उसने पाया की वह तन्हा है।
सीले हुए पटाखे और बोन्साई दो ऐसी कविताएँ हैं जहाँ कवि बनावटी जीवन पर कटाक्ष है। जिस तरह बोन्साई का पौधा अपने सच्चे स्वरुप तक कभी पहुँच ही नहीं पाता क्यूंकि माली उसको अपनी महत्वाकांक्षा के अनुसार रूपित करता है , वैसे ही समाज की त्रुटियाँ, विचारों के खोट कवि को एक रेखा में नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। कवि की उन्मुक्त भावनाओं को लगाम देता समाज माली की तरह उसे काटता है, कभी पनपने नहीं देता। खूबसूरती बस एक झूठी रचना बन जाती है जिसमें विचारों की स्वछंदता और कल्पना की उड़ान के लिए कोई जगह नहीं।
मंदिर के घंटे
इस प्राकृतिक सुंदरता को कुरूप करने के लिए मनुष्य ने क्या-क्या नहीं किया। नैनीताल November, 2011 में 'विचारहीन' परिवार प्लास्टिक-रुपी झूठी जीवन-शैली का उदहारण देते दिखाई देते हैं। राइफल शूटिंग साइट जहां मासूम परिंदों को भयभीत कर दूर भगाती है , वहीँ
दिखाई देते हैं।
'मसूरी ' की खूबसूरत वादियों में जहाँ कवि खुद को भूल जाता है वहीँ कोई 'गतिमान तितली ' या 'नन्ही पहाड़ी चिड़िया ' उसके मन को सचेत करती है। बारिश की बूँदें चंचलता अनुभव कराती हैं तो 'ठहरा ' पानी उसे 'स्थिर' करता है। जीवन की व्यस्स्तता के मध्य कुछ पलों के लिए ही सही , कवि ने साधु के लम्बे केशों-रुपी चीड़ के पेड़ों की ठंडी हवाएं महसूस की हैं। प्रकृति की विभिन्न निधियां - जल , हवा, पेड़-पौधे कवि के नीरस मन में रंग भर उसको रौशन करते हैं।
'घर बदलने पर ' एक ऐसी कविता है जो मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ गयी। अपने घर से किसको लगाव नहीं होता ? कौन ऐसा कठोर होगा जो अपने घर के छूट जाने पर मन में कोलाहल न महसूस करे ? यही भावना इस कविता की प्रस्तुति है। कवि को इस बात का दुःख है कि वह अपने घर को खली मकान बना छोड़ गया। जब उस घर का खालीपन उसे कचोटता है तो उसको एहसास होता है कि उसकी देह भी एक दिन छूट जाएगी। तब उसका कोई प्रशंसनीय, कोई आत्मज नहीं होगा। खाली घर में शायद फिर कोई आ कर उसको सजा देगा पर उसकी देह जो एक बार छूटी उसका पूरा नामोनिशान ही मिट जाएगा। शायद यही कारण है कि कवि इश्वर से कुछ और पल जीने की प्रार्थना करता है - कुछ ऐसे पल जो उसको जीवन से विमुख कर दें
आभार
यहाँ कुछ ऐसी चुनिंदा कविताएँ हैं जो इस किताब को उत्तम शिखर पर पहुंचाती हैं।
'गन्दा नाला' को कई प्रकार से पढ़ा जा सकता है। यह एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें अर्थ की परतें हैं। कभी मैं यहाँ एक भक्त को देखती हूँ जो अपने ईश्वर को आभार प्रकट कर रहा है कि उसने सारी त्रुटियाँ अनदेखी कर अपने भक्त को सहजता से अपनाया है, उसके मटमैले मन को अपनी निर्मलता से धो दिया है। कभी मुझे इन्ही पंक्तियों में कवि अपनी रचनाओं से बात करता प्रतीत होता है। यह रचनाएँ कवि के कलम की अशुद्धियों को दूर करती हैं और कवि के मन को साफ़ करती हैं। कुछ ऐसी भावनाएं, कुछ ऐसे मनोविकार जो उसको कहीं पक्षपाती न बना दें , गहन विचारों के ज़रिये कवि को निष्पक्ष और नैतिक बनाती हैं।
'रास्ता' हमारे विचलित मन को राह दिखाता है। कहते हैं न कि पानी का गिलास आधा भरा दिख रहा है या आधा खाली यह हमारी सोच पर निर्भर करता है। कवि ने यही विचार इस कविता में प्रस्तुत किया है। पथिक को 'फूलों भरी क्यारियां ' दिखाई देती हैं या 'कसाइयों की दुकान' - ये निर्धारित करेगा 'मेरे डरेे से तुम्हारे गाँव तक' का रास्ता कठिन है या सरल।
'दुआ ' में कवि ह्रदय अधीर हो प्रकृति से दुआ मांगता है। गर्मी जहां उसके तन को बेचैन करती है , बेलगाम घोड़े की तरह बरसती बारिश पास के पहाड़ों में 'कोहराम' मचा रही हैं। कवि को कुछ राहत तो चाहिए पर अपने स्वार्थ के लिए किसी और को नष्ट होते देखना उसको गवारा नहीं। इसीलिए कवि के हाथ दुआ में उठते हैं कि बारिश न आये :
सुबह 1 और सुबह 2 में मानव का प्रकृति के प्रति बेपरवाह व्यवहार अनैतिकता प्रदर्शित करता है। दीवाली कहने को तो ख़ुशी का त्यौहार है पर वही त्यौहार एक ऐसे पर्व के रूप में विकसित हो गया है जहाँ कुछ पलों की खोखली ख़ुशी के लिए मनुष्य ने उसी का तिरस्कार किया जिसने उसके अस्तित्व को बनाये रखा है। जो हवा-पानी हमें जीवन देते हैं, उन्हीं के प्रति कृतघ्न मनुष्य दुष्कर्म करता दिखाई देता है और प्रकृति की दुविधा की तुलना उस माँ से की गई है जो राह भूले अपने बेटे को न तो माफ़ कर सकती है न ही बददुआ दे सकती है। आभार प्रकट करना तो दूर मानवता को यह स्मरण ही नहीं है कि उसका जीवन प्रकृति के फलने-फूलने पर आश्रित है।
विपस्सना
क्या सच में कवि की साधना अधूरी रह गयी ? नहीं। कवि के शब्द और सचेत अंतर्मन ने वो खोज लिया जो जीवन को सम्पूर्ण करता है - वो प्रेम, वो समर्पण, वो आत्मीय भावना जो कवि को उसकी विचारणा से जोड़ती है , वो संगति जो एक गायक अपने गीतों में पाता है , वो भक्ति जो एक विनम्र भाव से उस इश्वर को पा लेती है जिसको कभी किसी ने नहीं देखा।
W H ऑडेन ने कहा है की कवि सर्प्रथम वह व्यक्ति है जो कि पूरी भावना से , भाषा के साथ आवेशपूर्ण प्रेम में है। अमित जी की कविताएँ भाषा की सर्वोत्तम रचनाएँ हैं। सामान्य तौर पर जो वस्तुएं एक आम आदमी अनदेखी कर दे, उन वस्तुओं में एक कवि ही है जो कविता खोज सकता है। जब मैंने अमित जी से पूछा कि क्या कारण था कि उन्होंने अपनी किताब को यह शीर्षक दिया तो उनका कथन था कि जीवन के दर्द रुपी एहसासों का वर्णन इन्ही शब्दों में स्पष्ट होता है। कांच के घर खूबसूरत तो हैं पर मिथ्या भी हैं। अकेलेपन का अनुभव कराते हैं। और दर्द एक ऐसी भावना है जो बिना किसी शोर के धीरे से हमें तोड़ जाती है। कभी मन के क्लेश तो कभी आत्मा की पीड़ा, कभी चिंतन तो कभी विस्मय और कभी किसी अंतहीन भव्यता की तलाश - इन सब अनुभूतियों का नाम है 'चिटकते कांचघर'।
बचपन में स्कूल में हिंदी एक विषय मात्र था। अपनी मातृ-भाषा होते हुए भी अच्छी हिंदी बोलना और लिखना कठिन लगता था। पर आज भी याद है जब हरिवंश राय बच्चन जी की कविता अद्भुत आनंद देती थी। जब भी पढ़ती थी लगता था की एक नया संगीत जीवन को सुरमयी बना गया। कुछ ऐसा ही नाता है मेरा कविताओं से। भाषा की गुलामी से दूर एक अपनी ही दुनिया बना देती हैं कविताएँ। व्याकरण के बंधन में बिना बंधे कवि ह्रदय से पाठक के ह्रदय तक सहजता से पहुँचने वाले शब्दों का नाम है कविता।
आज मैं खुद को भाग्यशाली मानती हूँ कि मुझे कुछ ऐसी सुन्दर रचनाओं को पढ़ने का अवसर मिला जो मेरे मन को सजीव और जीवन को सुशोभित कर गयीं। अमित अग्रवाल जी जो Safarnaamaa... सफ़रनामा... से अपनी एक अलग पहचान बना हम सबको सुन्दर साहित्य का उदहारण देते हैं , उन्होंने मुझे इस लायक समझा कि मैं उनकी किताब चिटकते कांचघर का पठन करूँ। मैं आभारी हूँ कि उन्होंने मुझे एक ऐसा संग्रह दिया जो सदैव मेरे जीवन को आलोकित करेगा। मैं यहाँ इस पुस्तक पर अपने कुछ विचार लिख रही हूँ। आशा करती हूँ कि आप सब इस पुस्तक को अपने जीवन में सम्मिलित कर अपने जीवन को अलंकृत करेंगे।
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कवि ने अपनी पुस्तक के तीन अनुभाग किये हैं - जीवन, विस्मय, एवं आभार। प्रत्येक भाग के अन्तर्गत विभिन्न विषयों पर कवि भावुकता और संवेदनशीलता से विषयों को प्रस्तुत करता है। कहीं मन की टीस का वर्णन है तो कहीं अनूठी उपमाओं से स्वयं पर गर्वित होता कवि मुस्कुराता दिखाई देता है। समय के परिवर्तन के साथ आए बदलाव कभी कवि ह्रदय को व्याकुल करते हैं तो कभी उसको अपने अतुलनीय व्यक्तित्व पर अभिमानित होने का अनुभव कराते हैं। शब्दों की प्रचुरता कवि का सबल शस्त्र है जिसमें आलोचक और मित्र, प्रेम और घृणा , असफलता और जीत, उपेक्षा और सम्मान, कृतग्यता और कृतघ्नता सब सम्मिलित हो जाते हैं।
जीवन
जिस तरह जीवन के रंग अनगिनत हैं , इस भाग की कविताओं का रस भी उन्हीं रंगों की तरह भिन्न , रोचक और मोहक है। कुछ ऐसे रूपांकन, कुछ ऐसे चित्र शब्दों के माध्यम से कवि ने चित्रित किये हैं जो सोचने पर विवश करते हैं। कभी उदासी, कभी किसी की बेरुखी, कभी खुद की असफलताएँ - इन सबका चित्रण बखूबी नज़र आता है छोटी छोटी विचारशील कविताओं में। जीवन को कभी चिटकते कांचघर तो कभी ताश के पत्तों के समान आसानी से नष्ट हो जाने वाला माना गया है।बाहरी शक्तियों के दुष्प्रभाव से टूटने का दोष जीवन की अपनी दुर्बलता को दिया गया है।
बेमानी है बहुत मासूम हवाओं पे रखना इल्ज़ाम
ताश के पत्तों के महल बसने को नहीं हुआ करते. ('हवाएं ')
ऐसे जीवन का क्या मतलब जो बस सांस लेना जानता है - जिसकी न कोई राह है न कोई मंज़िल? जो कभी जीवन को सही अर्थ में जी ही नहीं पाया, क्या वो कभी जीवित था भी ? नीचे लिखी ये पंक्तियाँ ये प्रश्न पूछने पर मजबूर करती हैं -
जड़ें रह गयीं प्यासी , मिट्टी तक ना पहुँची
हाँ आई तो थी बारिश बस पत्ते भिगो गयी. (ज़िन्दगी )
जो जीवन आक्रोश से भरा था, वो कैसे ज्वालाहीन हो गया ?
जला किया ताउम्र जंगल की बानगी
बाद मरने के ना इक चिंगारी नसीब थी. (ज़िन्दगी )
नये चलन के इस दौर से
मेल नहीं खाता.
...पर मेरे जैसे अब
बनते भी कहाँ हैं ! (बेकार )
'भूला गया' एक और सुंदर कविता है जिसमें अकेला पड़ा 'दीवला' एक उपेक्षित लेखक के तुलनीय है। जिस प्रकार दीवला एक कोने में पड़ा रह गया, अपनी योग्यता को जी ही नहीं पाया , उसी प्रकार एक गुणी लेखक/कवि अपनी रचनाओं के पारखी तक पहुँचने से चूक गया। कारण कोई भी हो - पाठक के ह्रदय तक पहुंचना सफल नहीं हुआ। कवि नयी रचना लिखते हुए डरता है कि कहीं फिर से वो तिरस्कृत दीवले की तरह अधूरा न रह जाए।
'लिबास' पढ़ते हुए मुझे मुल्ला नसरुद्दीन का एक किस्सा याद आ गया। 'हंग्री कोट ' नाम की एक कहानी कुछ समय पहले पढ़ी थी। किस्सा कुछ ऐसा है कि एक बार मुल्ला नसरुद्दीन किसी काम में बहुत व्यस्त होते हैं। पूरा दिन भाग-दौड़ करके बेहद थक गए होते हैं। तभी उन्हें याद आता है कि उन्हें किसी अमीर व्यक्ति के यहाँ दावत पे जाना था। मुल्ला को लगता है कि अगर वो कपड़े बदलने घर गए तो देर हो जाएगी इसीलिए वो ऐसे ही दावत में चले जाते हैं। उनके मैले कपड़ों को देख सभी उनसे मुंह मोड़ लेते हैं। यहाँ तक कि कोई उन्हें खाने के लिए भी कुछ नहीं पूछता। मुल्ला दावत छोड़ घर वापस जाते हैं और कपडे बदल कर लौटते हैं। इस बार उनके लिबास बेहद शानदार होते हैं। उनके प्रति सबका व्यवहार बदल जाता है। तभी मुल्ला खाने का एक एक व्यंजन उठा कर अपने कोट में डालते हैं - जब सब हैरान हो उनसे पूछते हैं की ये क्या हो रहा है तो मुल्ला कहते हैं की जब सादे लिबास में उनका स्वागत नहीं हुआ तो उनको समझ आ गया कि दावत कपड़ों के लिए थी उनके लिए नहीं। यह सुन कर सबको अपनी गलती का एहसास होता है।
मैं गया था आपके जलसे में लेकिन
मामूली कपड़ों में आप पहचान नहीं पाए! (लिबास )
लबरेज़ था जब, तो आते थे कई यार मश्कें लिए हुए
प्यासा हूँ आज, तो मसरूफ़ हैं सब ही कहीं - कहीं ! (इश्क़ )
ख़ूबसूरत हूँ बेशक़
और शायद क़ीमती भी..
..लेकिन ये असल मैं नहीं हूँ! (बोन्साई )
सीले हुए पटाखे प्रेरित करती है पूर्ण जीवन जीने के लिए। जो भी कार्य करें जी जान से करें। कागज़ के फूल कभी खुशबू नहीं बिखेरते। झूठे रिश्तों से तन्हाई के पल अच्छे हैं। बेमानी शब्दों से चुप्पी अच्छी है। जिसमें सच्चाई न हो वो अर्थहीन नाते हैं। दर्द को और नासूर बना देते हैं , वो किस काम के।
मत सजाओ कागज़ के फूलों से,
इससे तो ये गुलदान सूने ही अच्छे हैं . ....
..
मत लगाओ हमदर्द का मरहम बेमानी,
इससे तो ये ज़ख्म ताज़े ही अच्छे हैं . (सीले हुए पटाखे )
विस्मय
इस भाग में छोटी-छोटी बहुत कविताएँ हैं जो कवि के प्रेमी मन की बेचैनी को बखूबी बयान करती हैं। मिलन की ख़ुशी का एहसास और जुदाई के पलों की तड़प वही समझ सकता है जिसने कभी प्रेम किया हो। प्रेमिका के बिना हर पल एक उदास 'धुन' की तरह लगता है और उनका 'बाहों में चले आना
होगी महज़ इक अदा
उनके लिए
मेरी तो मगर
जान ले गई ! (उनकी अदा )
प्रेम में समर्पण के साथ कुछ मांग भी हैं , कुछ अनुरोध भी हैं। जब धोखा मिलता है तो कवि स्तब्ध रह जाता है क्यूंकि
जाते हुए सोचा न था
लौट कर आऊँ गा तो
अजनबी बनके मिलोगे (अजनबी )
नैनीताल Sept'12 एक बेहद मन लुभाने वाली कविता है - समझ नहीं आता कि किस प्रकार उसकी प्रशंसा करूँ। कवि 'आडम्बर ' से रहित नैनीताल की खुशनुमा तबियत को कभी बारिश के बरसते पानी में तो कभी निष्कपट कुदरत की प्रचुरता में सराहता है। पर इन सब से कहीं ऊपर है वहां की एकता - एक ऐसा स्वरुप जो मिल-जुल के रहने की प्रेरणा देता है
अज़ान की आवाज़
ख़ामोश खड़े चर्च
गुरुदद्वारे का प्रसाद ..
कितने ख़ुशनसीब हो तुम
नैनीताल
ख़ूबसूरती के अलावा भी
कितना कुछ है तुम्हारे पास!
'अस्वस्थ, ओवरवेट, शिथिल
और मानसिक तौर पर बीमार बच्चे ..
....
'थक' कर भागते हुए... '
दिखाई देते हैं।
'मसूरी ' की खूबसूरत वादियों में जहाँ कवि खुद को भूल जाता है वहीँ कोई 'गतिमान तितली ' या 'नन्ही पहाड़ी चिड़िया ' उसके मन को सचेत करती है। बारिश की बूँदें चंचलता अनुभव कराती हैं तो 'ठहरा ' पानी उसे 'स्थिर' करता है। जीवन की व्यस्स्तता के मध्य कुछ पलों के लिए ही सही , कवि ने साधु के लम्बे केशों-रुपी चीड़ के पेड़ों की ठंडी हवाएं महसूस की हैं। प्रकृति की विभिन्न निधियां - जल , हवा, पेड़-पौधे कवि के नीरस मन में रंग भर उसको रौशन करते हैं।
'घर बदलने पर ' एक ऐसी कविता है जो मेरे मन पर गहरी छाप छोड़ गयी। अपने घर से किसको लगाव नहीं होता ? कौन ऐसा कठोर होगा जो अपने घर के छूट जाने पर मन में कोलाहल न महसूस करे ? यही भावना इस कविता की प्रस्तुति है। कवि को इस बात का दुःख है कि वह अपने घर को खली मकान बना छोड़ गया। जब उस घर का खालीपन उसे कचोटता है तो उसको एहसास होता है कि उसकी देह भी एक दिन छूट जाएगी। तब उसका कोई प्रशंसनीय, कोई आत्मज नहीं होगा। खाली घर में शायद फिर कोई आ कर उसको सजा देगा पर उसकी देह जो एक बार छूटी उसका पूरा नामोनिशान ही मिट जाएगा। शायद यही कारण है कि कवि इश्वर से कुछ और पल जीने की प्रार्थना करता है - कुछ ऐसे पल जो उसको जीवन से विमुख कर दें
ताकि फिर वापस
यहाँ आने का
दिल ही न करे! (...और अंत में ईश्वर के नाम )
आभार
यहाँ कुछ ऐसी चुनिंदा कविताएँ हैं जो इस किताब को उत्तम शिखर पर पहुंचाती हैं।
'गन्दा नाला' को कई प्रकार से पढ़ा जा सकता है। यह एक ऐसी अभिव्यक्ति है जिसमें अर्थ की परतें हैं। कभी मैं यहाँ एक भक्त को देखती हूँ जो अपने ईश्वर को आभार प्रकट कर रहा है कि उसने सारी त्रुटियाँ अनदेखी कर अपने भक्त को सहजता से अपनाया है, उसके मटमैले मन को अपनी निर्मलता से धो दिया है। कभी मुझे इन्ही पंक्तियों में कवि अपनी रचनाओं से बात करता प्रतीत होता है। यह रचनाएँ कवि के कलम की अशुद्धियों को दूर करती हैं और कवि के मन को साफ़ करती हैं। कुछ ऐसी भावनाएं, कुछ ऐसे मनोविकार जो उसको कहीं पक्षपाती न बना दें , गहन विचारों के ज़रिये कवि को निष्पक्ष और नैतिक बनाती हैं।
'रास्ता' हमारे विचलित मन को राह दिखाता है। कहते हैं न कि पानी का गिलास आधा भरा दिख रहा है या आधा खाली यह हमारी सोच पर निर्भर करता है। कवि ने यही विचार इस कविता में प्रस्तुत किया है। पथिक को 'फूलों भरी क्यारियां ' दिखाई देती हैं या 'कसाइयों की दुकान' - ये निर्धारित करेगा 'मेरे डरेे से तुम्हारे गाँव तक' का रास्ता कठिन है या सरल।
'दुआ ' में कवि ह्रदय अधीर हो प्रकृति से दुआ मांगता है। गर्मी जहां उसके तन को बेचैन करती है , बेलगाम घोड़े की तरह बरसती बारिश पास के पहाड़ों में 'कोहराम' मचा रही हैं। कवि को कुछ राहत तो चाहिए पर अपने स्वार्थ के लिए किसी और को नष्ट होते देखना उसको गवारा नहीं। इसीलिए कवि के हाथ दुआ में उठते हैं कि बारिश न आये :
'जाने दो
मैं सह लूँगा गर्मी का दर्द
पर वहाँ मत करना और उपद्रव ! '
सुबह 1 और सुबह 2 में मानव का प्रकृति के प्रति बेपरवाह व्यवहार अनैतिकता प्रदर्शित करता है। दीवाली कहने को तो ख़ुशी का त्यौहार है पर वही त्यौहार एक ऐसे पर्व के रूप में विकसित हो गया है जहाँ कुछ पलों की खोखली ख़ुशी के लिए मनुष्य ने उसी का तिरस्कार किया जिसने उसके अस्तित्व को बनाये रखा है। जो हवा-पानी हमें जीवन देते हैं, उन्हीं के प्रति कृतघ्न मनुष्य दुष्कर्म करता दिखाई देता है और प्रकृति की दुविधा की तुलना उस माँ से की गई है जो राह भूले अपने बेटे को न तो माफ़ कर सकती है न ही बददुआ दे सकती है। आभार प्रकट करना तो दूर मानवता को यह स्मरण ही नहीं है कि उसका जीवन प्रकृति के फलने-फूलने पर आश्रित है।
विपस्सना
क्या सच में कवि की साधना अधूरी रह गयी ? नहीं। कवि के शब्द और सचेत अंतर्मन ने वो खोज लिया जो जीवन को सम्पूर्ण करता है - वो प्रेम, वो समर्पण, वो आत्मीय भावना जो कवि को उसकी विचारणा से जोड़ती है , वो संगति जो एक गायक अपने गीतों में पाता है , वो भक्ति जो एक विनम्र भाव से उस इश्वर को पा लेती है जिसको कभी किसी ने नहीं देखा।
लेकिन बिना साधना के
मुझे वो मिल गया
जो अनशवर है, सनातन है, शाशवत है,
सत्य है-
तुम!! (विपस्सना )
W H ऑडेन ने कहा है की कवि सर्प्रथम वह व्यक्ति है जो कि पूरी भावना से , भाषा के साथ आवेशपूर्ण प्रेम में है। अमित जी की कविताएँ भाषा की सर्वोत्तम रचनाएँ हैं। सामान्य तौर पर जो वस्तुएं एक आम आदमी अनदेखी कर दे, उन वस्तुओं में एक कवि ही है जो कविता खोज सकता है। जब मैंने अमित जी से पूछा कि क्या कारण था कि उन्होंने अपनी किताब को यह शीर्षक दिया तो उनका कथन था कि जीवन के दर्द रुपी एहसासों का वर्णन इन्ही शब्दों में स्पष्ट होता है। कांच के घर खूबसूरत तो हैं पर मिथ्या भी हैं। अकेलेपन का अनुभव कराते हैं। और दर्द एक ऐसी भावना है जो बिना किसी शोर के धीरे से हमें तोड़ जाती है। कभी मन के क्लेश तो कभी आत्मा की पीड़ा, कभी चिंतन तो कभी विस्मय और कभी किसी अंतहीन भव्यता की तलाश - इन सब अनुभूतियों का नाम है 'चिटकते कांचघर'।
Such a beautiful and detailed review. Thanks dear for sharing some of the verses. I admire Amit Sir's poetry a lot. Looking forward to read this book soon :)
ReplyDeleteThanks Purba. You will be delighted to read the entire collection.
DeleteI think I read the English version, but couldn't find my comment there. I wish someone writes a review like this for me. I have always loved Amit Sir's work. I have worked with him in the past and read his mother's work too.
ReplyDeleteRespect to your detailed review, Sunaina.
Oh Saru, what kind words you write. Thanks so much. I did not recieve your English comment but its fine here too. I have not read Amit ji's mother's works but I am sure she has been a great inspiration to him. And byw, I am willing to review your book too...:)
Deleteआपकी समीक्षा बेहद सटीक और मेरी भावनाओं के बहुत क़रीब है, सुनयना !
ReplyDeleteआपका प्रदर्शन सुन्दर शब्दों और भावों का अद्वितीय सम्मिश्रण है.
इतनी बेहतरीन समीक्षा लिखने के लिए आप स्वयं प्रशंसा की पात्र हैं...
साधुवाद ! अनेक धन्यवाद! आभार!!
Thanks Amit ji. I hope I have understood your poems correctly, although there is no one correct meaning when it comes to poems. Thanks to you for honoring me with your wonderful poetry.
DeleteSunaina, liked the way you are absorbed in the book and bring the essence out of it beautifully for the readers. Indeed a great review. :)
ReplyDeleteThanks so much Ravish.
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