Tuesday, March 17, 2015

बेटी की शादी


माँ बेटी घर से निकले, शॉपिंग करने कपड़ों की 
माँ की चिंता दूर हुई, बेटी की बात हुई पक्की 
साधारण सा परिवार है मेरा, बेटी ही मेरा धन है 
पर बेटी की शादी पर मेरा अब सब कुछ अर्पण है 
माँ सोचे बेटी की हर आशा पूरी हो जाए आज 
कपडे, गहने, घर की हर वस्तु है मुझको लेनी आज 

स्थिति आर्थिक नहीं है अच्छी, पर बेटी को ब्याहना है 
लेन-देन के व्यवहारों को माँ को आज निभाना है 
रिश्तेदारों की मांग नहीं, रिश्ता तो अच्छा आया है 
पर सभ्य समाज की रीत है ऐसी माँ ने सर्वस्व लुटाया है 

कदम बढाती माँ चलती अपनी बेटी के हाथ को थाम 
थमे कदम जब सुनी कहीं से एक चीख उसने उस शाम 
क्या देखे कुछ लड़के रोके इक लड़की का रस्ता हैं 
लड़की के हाथ मैं है लाठी और मुंह पे काला चश्मा है 

लड़के कुछ यूँ उस लड़की के अंधेपन का उपहास उड़ाते हैं 
लड़की जिस तरफ मुड़े उस ओर कुछ पत्थर वो वहां बिछाते हैं 
जब लड़खड़ाये वो तो उसको छूते हैं, हाथ लगाते हैं 
कभी बैग और कभी दुपटटा उससे वो खींचे जाते हैं 

लड़की जाने क्या मसला है, वो लड़ती ही जाती है 
लाठी से भी न माने जब, तो मदद को वो चिल्लाती है 
सड़क पे चलने वाले देख के भी अनदेखा करते हैं 
माँ बेटी इस बेशर्मी पे बहुत अचम्भा करते हैं 

माँ थामे बेटी का हाथ कदम बढ़ाती है उस ओर 
जहाँ निकम्मे करते मनमानी और मचाते गन्दा शोर 
तीनों की हिम्मत देखें लोग फिर फौरन पुलिस बुलाते हैं 
लड़कों को सौंप पुलिस को फिर सब अपने रस्ते जाते हैं 

पर माँ अंधी लड़की को शाबाशी देने रुकती है 
और लड़की भी माँ के आँचल को छू फिर फूट-फूट कर रोती है 
माँ  पौंछे आंसू कहती है, तुझे नहीं अब रोना है 
ये लड़ाई खुद ही लड़नी है, कभी न खुद को खोना  है 

लड़की बोले बिन आँखों के मैं दुर्बल सी हो जाती हूँ 
कैसे पहचानूं गुंडों को जब देख न उनको पाती हूँ 
लड़ती हूँ लेकिन मैं कैसे उनको जेल तक पहुँचाऊँ 
जो छेड़ के मुझको छिप जाएं और देख न मैं उनको पाऊँ 

माँ सुन के बात उस लड़की की गहरी सोच में कुछ पड़  जाती है 
फिर बैग से अपने रुपए निकाल लड़की के हाथ थमाती है 
चल संग मेरे तू अस्पताल अब इस अन्धकार को दूर करें 
कोई न तुझ पर हावी हो, कोई न तुझे मजबूर करे 

बेटी की शादी तो मैं अब सादे ढंग से करवाउंगी 
अंधे समाज की रीति को मैं पल पल हर पल ठुकराऊँगी 
लड़की कहती कैसे वापस मैं ये रुपये  कर पाऊँगी 
नहीं है मेरी तनख्वाह इतनी मैं ये ना ले पाऊँगी 

बेटी तू जब एक-एक गुंडे को जेल की सैर कराएगी 
तब सोचना ये कि मेरी हर पाई तुझसे चुक जाएगी 
अब चल तुझको घर छोड़ूँ मैं कल एक नयी सुबह होगी 
शक्ति और विश्वास से कल एक नयी ज्योति पैदा होगी......



1 comment:

  1. This is so beautiful Sunaina. The poem is infused with courage and morale that's indeed the need of the hour. We often come across such incidents of eve-teasing and molestation in our daily life and simply choose to ignore them to avoid complications.
    You have raised a voice against a less discussed problem in such a simple and lucid manner that it straight away touches right cords. Being a mother of two grown-up daughters, I'm deeply touched reading this.

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