
Dear Zindagi,
कहाँ से शुरू करूं ? Ruth Ozeki की किताब A Tale for the Time Being पढ़ रही हूँ। कहानी में Nao , जो प्रमुख पात्र है, इस ही सवाल का जवाब सोच रही है और उसको जवाब मिलता है कि जहाँ हो, वहीँ से शुरू करो। बात अच्छी लगी तो मैंने सोचा की क्यों न ये करके देखा जाए।
तो नवम्बर की मीठी ठण्ड में सुबह ५ बजे उठ कर नाश्ता और lunch-box तैयार करती हूँ। सारा काम ख़त्म होते ही अदरक वाली कड़क चाय और bread के दो toast बना कर बैठ जाती हूँ, तुम्हे ये letter लिखने के लिए। India में होती तो मम्मी और भाभी भी चाय के साथ कुछ गप-शप लगातीं और चाय पीने का मज़ा दोगुना हो जाता। पर New Jersey के शहर Edison के एक apartment में बच्चों के उठने से पहले ये चिठ्ठी लिखने का मज़ा भी अलग लग रहा है।
बाहर बिलकुल अँधेरा है। खिड़की के blinds हटा के देखती हूँ तो आस-पास बस छोटी-छोटी टिमटिमाती lights नज़र आती हैं। न कोई चिड़िया अपने घोंसले से बाहर आयी है और न ही कोई इंसान। Blinds बंद करते हुए ख्याल आता है मम्मी की kitchen की खिड़की का। पिछली बार जब India गयी थी तो वो खिड़की तो जैसे मेरी दोस्त ही बन गयी थी। जब भी बाहर देखो तो, Dear Zindagi , तुम अनोखे अंदाज़ में मुस्कुराती इतराती नज़र आती थीं। कोई गाय अपने झुण्ड के साथ जाती दिखती थी, तो कोई scooter वाला ऑफिस जाने की जल्दी में तेज़ रफ़्तार से निकलता नज़र आता था। कहीं स्कूल uniform में बच्चे bag और पानी की bottle उठाये बस का इंतज़ार करते दिखाई देते थे।
खिड़की के बाहर, सड़क के किनारे एक पेड़ था। मम्मी ने माली से पूछ के बताया कि वो kigelia का पेड़ है - हिंदी में बलम -खीरा कहते हैं। न जाने मैं कितने साल उस पेड़ के नीचे खड़ी हो के अपनी स्कूल बस की wait किया करती थी। उसी पेड़ के नीचे पापा ने एक चबूतरा बनवाने की सोची। गर्मी के दिन बहुत थकान वाले होते हैं India में। पापा ने सोचा की बहुत चलती सड़क है , तो क्यों ने राहगीरों के लिए एक पानी की प्याऊ बनाई जाये। पक्का चबूतरा बनवाया गया। मिटटी के मटके रखे गए - आह क्या खुशबू होती है मिटटी के मटकों के पानी की ! आते-जाते प्यासे राही जब वहाँ रुक कर पानी पीते तो लगता था कि प्याऊ का होना जैसे सार्थक हो गया। पर ऐसा बहुत देर तक नहीं चला। जानते हैं क्यों - क्योंकि शायद पानी की प्यास पूरी करने से ज़्यादा ज़रूरी कुछ और लोगों की अनजान पर महत्वपूर्ण ज़रूरतें थीं जो मटके या मटके के ढक्कन को चुरा कर बेचने से पूरी हो पाती थीं।
खैर, प्याऊ का अस्तित्व बनाते मटके गायब होते गए। हार कर मटके रखना छोड़ दिया। बेचारा चबूतरा तनहा हो गया। एक सुबह खिड़की से देखा कि zindagi एक नए रूप में चबूतरे पर सजी थी। प्याऊ की जगह चाय का खोका खड़ा था। सर्दी हो या गर्मी, चाय पीने वाले मौसम नहीं देखते। धीरे-धीरे जमघट बढ़ता गया और चाय वाला तुम्हे, Dear Zindagi, एक बार फिर से ख़ुशी से जीने लगा।
कुछ दिन बीते। जाने चाय वाले की चाय ख़त्म हुई या फिर उसको zindagi ने कुछ नई राह दिखा दी, वो भी चबूतरा छोड़ के चला गया। पेड़ की हरियाली चबूतरे के खालीपन को कुछ दिन तक भरती रही। कभी दोपहर में खिड़की से बाहर नज़र जाती थी तो दिखता था कि दो बंधु पेड़ से कुछ तोड़ रहे हैं। बलम-खीरे का उपयोग जोड़ों के दर्द, गठिया के उपचार आदि के लिए किया जाता है। शायद घर के किसी वृद्ध के दर्द दूर करने के लिए बंधु पेड़ पर चढ़े होंगे।
एक दिन देखा एक सफ़ेद गाड़ी से एक आदमी बाहर निकल कर चबूतरे पर कुछ कपड़े रख रहा है। सस्ती टी-शर्ट्स, जो न सिर्फ कीमत में पर देखने में भी सस्ती लगती थीं , उनका खरीददार कौन होगा, ये सवाल मन में उठा। पर जवाब जल्दी ही मिल गया जब सुबह, दोपहर और शाम, कई दिनों तक, चबूतरे पर लोगों की भीड़ लगी रहती। साइकिल सवार हो या बड़ी गाड़ी चलाने वाले अंकल, सबको उन टी-शर्ट्स में कुछ तो बात लगती थी। समय बीता और zindagi का ये रंग भी किसी और गली-कूचे को रंगीन करने निकल गया।
पर चबूतरा तो मानो सबको मोहित करता था। कुल्फी वाले भैया ने वहां खूब कुल्फी बेचीं। लोगों को गर्मी से राहत मिलती और भैया की जेब थोड़ी गर्म हो जाती।
हम खिड़की के इस पार खड़े यही सोचते थे कि अब ये जाएगा तो कौन आएगा। जैसे कोई मंच हो मानो , जिसमें एक पात्र अपनी भूमिका निभा के जाता और फिर दूसरा आ कर उसकी जगह ले लेता।
zindagi आगे चलती रही। पर चलते चलते कभी पैर थके तो कभी जूते फटे। चबूतरा सब देखता रहा। जहाँ कभी कपड़े , कभी पानी और कभी चाय या कुल्फी थी, आज वहां जूते रखे गए। लोग आये। जूते पहन कर देखे। किसी को भाए तो लिए नहीं तो आगे बढ़ गए घड़ी की उस सूईं की तरह जो किसी का इंतज़ार नहीं करती।
Dear Zindagi , कितने रंग हैं तुम्हारे! तुम्हे जीने के लिए इंसान क्या नहीं करता। क्या हो तुम - एक उम्मीद , आगे बढ़ता एक कदम, एक छलावा, या एक भटके हुए राही की आखिरी मंज़िल ? उस दिन जब वो शराबी, जिसे किसी ने पागल कहा और किसी ने तिरस्कारा, क्या वो तुम्हारे आँचल में छुपा तुमसे कुछ सवाल नहीं पूछ रहा था? चबूतरा शायद उसको एक पालने के जैसा लगा होगा तो वो नशे में चूर हो वहां सो गया। kigelia के पेड़ के तले कुछ गहरे सपनों में खो गया। सब ने दूर से देखा और कहा कि शायद कोई पागल है, नहीं तो कौन भला ऐसे सो जाएगा। कुछ पल बीते, कुछ घंटे और फिर पूरी रात। शायद तुमने उसको बहुत थका दिया होगा zindagi .... तभी तो इतनी देर तक सुषुप्त रहा। सबने सोचा की शायद मर गया। नींद में चबूतरे से नीचे सड़क पे भी लुड़क गया। भीड़ जमा हुई। सबकी साँसें थमी थीं कि जाने कौन है , क्या हुआ है। कोई हमदर्दी से पास नहीं गया शायद, पर उत्सुकता ज़रूर उसके पास खींच ले गयी - सब जानना चाहते थे कि ज़िन्दगी ने उसका साथ छोड़ा या नहीं।
कुछ पल बीते। साँसें चल रहीं थीं। चेतना लौटी और शराबी/पागल अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गया। देखने वालों को कहानी मिली सुनाने के लिए और देखने के लिए मिला zindagi का एक और रंग। चबूतरा चुप-चाप एक मज़बूत मंच बन डटा रहा, जैसे कह रहा हो कि कोई भी मौसम क्यों न हो , मैं zindagi को बुलाता रहूँगा , कोई गीत गाता रहूँगा। धुन कभी दर्द देगी तो कभी हंसाएगी, पर ज़िन्दगी यूँ ही चलती चली जाएगी।
ये सब लिखते हुए न जाने कितने पल बीत गए। लगा कि मैं फिर वहीं उस खिड़की के परदे खोल रही हूँ। पर परदे उन यादों के खोल रही थी जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी को सजाया है। कुछ खट्टी यादें, कुछ मीठी यादें - नम आँखों से टपकती यादें, मुस्कुराते होठों से छलकती यादें। कहानी तो चबूतरे की लिखी पर स्कूल से सफर करती हुई आज के पल में आ के ठहर गयी। कितना कुछ खोया इस सफर में - पापा की हंसी , भाई की शरारतें, बेपरवाह बचपन। और कितना कुछ पाया - भाभी के रूप में एक पक्की सहेली, मम्मी की निकटता, बच्चों की मासूम शैतानियां। खेल खेलना खूब जानती हो तुम zindagi , कुछ लेती हो, कुछ दे जाती हो।
क्या शिकायत करूं तुमसे.... मालूम नहीं।
सोचती हूँ बस चलती रहूँ।
मंज़िल कहाँ है, क्या पता। पर ये जानना शायद ज़रूरी नहीं। कुछ रास्ते छुपे रहें तो ही अच्छा है। न जाने किस मोड़ पे कौन सी खिखिलाहट रू-ब -रू हो जाए। रही बात आंसूओं की, तो उनसे बातें करना तो तुमने सिखा ही दिया है।
स्नेह सहित
zindagi के मंच की एक पात्र
“I am writing a letter to life for the #DearZindagi activity at BlogAdda“
कहाँ से शुरू करूं ? Ruth Ozeki की किताब A Tale for the Time Being पढ़ रही हूँ। कहानी में Nao , जो प्रमुख पात्र है, इस ही सवाल का जवाब सोच रही है और उसको जवाब मिलता है कि जहाँ हो, वहीँ से शुरू करो। बात अच्छी लगी तो मैंने सोचा की क्यों न ये करके देखा जाए।
तो नवम्बर की मीठी ठण्ड में सुबह ५ बजे उठ कर नाश्ता और lunch-box तैयार करती हूँ। सारा काम ख़त्म होते ही अदरक वाली कड़क चाय और bread के दो toast बना कर बैठ जाती हूँ, तुम्हे ये letter लिखने के लिए। India में होती तो मम्मी और भाभी भी चाय के साथ कुछ गप-शप लगातीं और चाय पीने का मज़ा दोगुना हो जाता। पर New Jersey के शहर Edison के एक apartment में बच्चों के उठने से पहले ये चिठ्ठी लिखने का मज़ा भी अलग लग रहा है।
बाहर बिलकुल अँधेरा है। खिड़की के blinds हटा के देखती हूँ तो आस-पास बस छोटी-छोटी टिमटिमाती lights नज़र आती हैं। न कोई चिड़िया अपने घोंसले से बाहर आयी है और न ही कोई इंसान। Blinds बंद करते हुए ख्याल आता है मम्मी की kitchen की खिड़की का। पिछली बार जब India गयी थी तो वो खिड़की तो जैसे मेरी दोस्त ही बन गयी थी। जब भी बाहर देखो तो, Dear Zindagi , तुम अनोखे अंदाज़ में मुस्कुराती इतराती नज़र आती थीं। कोई गाय अपने झुण्ड के साथ जाती दिखती थी, तो कोई scooter वाला ऑफिस जाने की जल्दी में तेज़ रफ़्तार से निकलता नज़र आता था। कहीं स्कूल uniform में बच्चे bag और पानी की bottle उठाये बस का इंतज़ार करते दिखाई देते थे।
खिड़की के बाहर, सड़क के किनारे एक पेड़ था। मम्मी ने माली से पूछ के बताया कि वो kigelia का पेड़ है - हिंदी में बलम -खीरा कहते हैं। न जाने मैं कितने साल उस पेड़ के नीचे खड़ी हो के अपनी स्कूल बस की wait किया करती थी। उसी पेड़ के नीचे पापा ने एक चबूतरा बनवाने की सोची। गर्मी के दिन बहुत थकान वाले होते हैं India में। पापा ने सोचा की बहुत चलती सड़क है , तो क्यों ने राहगीरों के लिए एक पानी की प्याऊ बनाई जाये। पक्का चबूतरा बनवाया गया। मिटटी के मटके रखे गए - आह क्या खुशबू होती है मिटटी के मटकों के पानी की ! आते-जाते प्यासे राही जब वहाँ रुक कर पानी पीते तो लगता था कि प्याऊ का होना जैसे सार्थक हो गया। पर ऐसा बहुत देर तक नहीं चला। जानते हैं क्यों - क्योंकि शायद पानी की प्यास पूरी करने से ज़्यादा ज़रूरी कुछ और लोगों की अनजान पर महत्वपूर्ण ज़रूरतें थीं जो मटके या मटके के ढक्कन को चुरा कर बेचने से पूरी हो पाती थीं।
खैर, प्याऊ का अस्तित्व बनाते मटके गायब होते गए। हार कर मटके रखना छोड़ दिया। बेचारा चबूतरा तनहा हो गया। एक सुबह खिड़की से देखा कि zindagi एक नए रूप में चबूतरे पर सजी थी। प्याऊ की जगह चाय का खोका खड़ा था। सर्दी हो या गर्मी, चाय पीने वाले मौसम नहीं देखते। धीरे-धीरे जमघट बढ़ता गया और चाय वाला तुम्हे, Dear Zindagi, एक बार फिर से ख़ुशी से जीने लगा।
कुछ दिन बीते। जाने चाय वाले की चाय ख़त्म हुई या फिर उसको zindagi ने कुछ नई राह दिखा दी, वो भी चबूतरा छोड़ के चला गया। पेड़ की हरियाली चबूतरे के खालीपन को कुछ दिन तक भरती रही। कभी दोपहर में खिड़की से बाहर नज़र जाती थी तो दिखता था कि दो बंधु पेड़ से कुछ तोड़ रहे हैं। बलम-खीरे का उपयोग जोड़ों के दर्द, गठिया के उपचार आदि के लिए किया जाता है। शायद घर के किसी वृद्ध के दर्द दूर करने के लिए बंधु पेड़ पर चढ़े होंगे।
एक दिन देखा एक सफ़ेद गाड़ी से एक आदमी बाहर निकल कर चबूतरे पर कुछ कपड़े रख रहा है। सस्ती टी-शर्ट्स, जो न सिर्फ कीमत में पर देखने में भी सस्ती लगती थीं , उनका खरीददार कौन होगा, ये सवाल मन में उठा। पर जवाब जल्दी ही मिल गया जब सुबह, दोपहर और शाम, कई दिनों तक, चबूतरे पर लोगों की भीड़ लगी रहती। साइकिल सवार हो या बड़ी गाड़ी चलाने वाले अंकल, सबको उन टी-शर्ट्स में कुछ तो बात लगती थी। समय बीता और zindagi का ये रंग भी किसी और गली-कूचे को रंगीन करने निकल गया।
पर चबूतरा तो मानो सबको मोहित करता था। कुल्फी वाले भैया ने वहां खूब कुल्फी बेचीं। लोगों को गर्मी से राहत मिलती और भैया की जेब थोड़ी गर्म हो जाती।
हम खिड़की के इस पार खड़े यही सोचते थे कि अब ये जाएगा तो कौन आएगा। जैसे कोई मंच हो मानो , जिसमें एक पात्र अपनी भूमिका निभा के जाता और फिर दूसरा आ कर उसकी जगह ले लेता।
zindagi आगे चलती रही। पर चलते चलते कभी पैर थके तो कभी जूते फटे। चबूतरा सब देखता रहा। जहाँ कभी कपड़े , कभी पानी और कभी चाय या कुल्फी थी, आज वहां जूते रखे गए। लोग आये। जूते पहन कर देखे। किसी को भाए तो लिए नहीं तो आगे बढ़ गए घड़ी की उस सूईं की तरह जो किसी का इंतज़ार नहीं करती।
Dear Zindagi , कितने रंग हैं तुम्हारे! तुम्हे जीने के लिए इंसान क्या नहीं करता। क्या हो तुम - एक उम्मीद , आगे बढ़ता एक कदम, एक छलावा, या एक भटके हुए राही की आखिरी मंज़िल ? उस दिन जब वो शराबी, जिसे किसी ने पागल कहा और किसी ने तिरस्कारा, क्या वो तुम्हारे आँचल में छुपा तुमसे कुछ सवाल नहीं पूछ रहा था? चबूतरा शायद उसको एक पालने के जैसा लगा होगा तो वो नशे में चूर हो वहां सो गया। kigelia के पेड़ के तले कुछ गहरे सपनों में खो गया। सब ने दूर से देखा और कहा कि शायद कोई पागल है, नहीं तो कौन भला ऐसे सो जाएगा। कुछ पल बीते, कुछ घंटे और फिर पूरी रात। शायद तुमने उसको बहुत थका दिया होगा zindagi .... तभी तो इतनी देर तक सुषुप्त रहा। सबने सोचा की शायद मर गया। नींद में चबूतरे से नीचे सड़क पे भी लुड़क गया। भीड़ जमा हुई। सबकी साँसें थमी थीं कि जाने कौन है , क्या हुआ है। कोई हमदर्दी से पास नहीं गया शायद, पर उत्सुकता ज़रूर उसके पास खींच ले गयी - सब जानना चाहते थे कि ज़िन्दगी ने उसका साथ छोड़ा या नहीं।
कुछ पल बीते। साँसें चल रहीं थीं। चेतना लौटी और शराबी/पागल अपनी मंज़िल की ओर बढ़ गया। देखने वालों को कहानी मिली सुनाने के लिए और देखने के लिए मिला zindagi का एक और रंग। चबूतरा चुप-चाप एक मज़बूत मंच बन डटा रहा, जैसे कह रहा हो कि कोई भी मौसम क्यों न हो , मैं zindagi को बुलाता रहूँगा , कोई गीत गाता रहूँगा। धुन कभी दर्द देगी तो कभी हंसाएगी, पर ज़िन्दगी यूँ ही चलती चली जाएगी।
ये सब लिखते हुए न जाने कितने पल बीत गए। लगा कि मैं फिर वहीं उस खिड़की के परदे खोल रही हूँ। पर परदे उन यादों के खोल रही थी जिन्होंने मेरी ज़िन्दगी को सजाया है। कुछ खट्टी यादें, कुछ मीठी यादें - नम आँखों से टपकती यादें, मुस्कुराते होठों से छलकती यादें। कहानी तो चबूतरे की लिखी पर स्कूल से सफर करती हुई आज के पल में आ के ठहर गयी। कितना कुछ खोया इस सफर में - पापा की हंसी , भाई की शरारतें, बेपरवाह बचपन। और कितना कुछ पाया - भाभी के रूप में एक पक्की सहेली, मम्मी की निकटता, बच्चों की मासूम शैतानियां। खेल खेलना खूब जानती हो तुम zindagi , कुछ लेती हो, कुछ दे जाती हो।
क्या शिकायत करूं तुमसे.... मालूम नहीं।
सोचती हूँ बस चलती रहूँ।
मंज़िल कहाँ है, क्या पता। पर ये जानना शायद ज़रूरी नहीं। कुछ रास्ते छुपे रहें तो ही अच्छा है। न जाने किस मोड़ पे कौन सी खिखिलाहट रू-ब -रू हो जाए। रही बात आंसूओं की, तो उनसे बातें करना तो तुमने सिखा ही दिया है।
स्नेह सहित
zindagi के मंच की एक पात्र
“I am writing a letter to life for the #DearZindagi activity at BlogAdda“