बचपन से ही पापा की दुलारी बेटी थी। प्रतिदिन सुबह पापा को उठ कर कचहरी के लिए तैयार होता देखती। काला कोट न जाने कैसे सम्मोहित सा कर देता। काले चमचमाते जूते टक-टक करते अपना संगीत सुनाते और मुझे मोह लेते। जब तक गाड़ी आँखों से ओझल न हो जाती , मैं टकटकी लगाए दरवाज़े या खिड़की पर खड़ी रहती थी। जबसे स्मृतियां बनीं , जबसे चेतना जागी , मुझे बस एक बात याद है - पापा की तरह मुझे भी वकील बनना था ।
सुबह-शाम सपने देखती कि मैं भी काला कोट पहन कचहरी जा रही हूँ। अदालत में अपनी दलीलों से सबको हरा रही हूँ। कि पापा की तरह समाज में मेरी भी पूछ है , रुतबा है।
आज जब सोचती हूँ तो लगता है कि वकील बनने से ज़्यादा मैं पापा की छवि चाहती थी। पापा की लुभावनी छवि - मुस्कुराता चेहरा, बेबाक हंसी, निडर व्यक्तित्व , सकारात्मक दृष्टिकोण। आखिर वही तो था उनकी सफलता का कारण। और मैं बचपन की मासूम अनभिज्ञता में दोनों को एक समझ बैठी।
रातों-रात नहीं बना था पापा का रुतबा। न जाने कितनी रातें पापा ने जाग कर गुजारीं होंगी। न जाने कितनी किताबें जो पापा के दफ्तर की शोभा में चार चाँद लगाती थीं, पापा ने पढ़ी होंगी। और न जाने कितनी बार नाकामयाबी की ठोकर भी खायी होगी। मैं तो बच्ची थी। मुझे सिर्फ पापा की खनकती हंसी सुनाई देती थी। मुझे बस मम्मी के स्नेहित स्पर्श हर्षाता था। मुझे बस भाई के संग मस्ती भाती थी।
पापा कभी कचहरी के किस्से घर पर नहीं लाते थे पर यह जग-विदित था कि पापा कि अपनी साख थी। पर पापा ने बहुत संघर्ष किया था यहाँ तक पहुँचने के लिए। और मम्मी ने उनका पूरा साथ दिया था। मम्मी बताती हैं कि पापा ने वकालत शुरू ही की थी और मेरे दादाजी का निधन हो गया था। पर पापा ने हिम्मत नहीं हारी। दिन-रात मेहनत करते थे। किराए के घर के पैसे चुकाने के लिए गुल्लक में पैसे रखते। घर में गैस का पहला सिलिंडर मम्मी की आमदनी से आया था। मम्मी कॉलेज में पढ़ाती थीं। पापा के पास आने-जाने का साधन भी नहीं था तो किसी और के साथ जाया करते थे। एक दिन उसने मना कर दिया। पापा का मन आहत हुआ और पापा ने स्कूटर खरीदा। मम्मी और पापा जैसे उस दुपहिए वाहन के दो पहिए थे। एक-दुसरे का मज़बूत सहारा। एक के बिना दूसरा अधूरा।
कहते हैं न कि सबको हीरे की बस चमक दिखाई देती है। सब भूल जाते हैं कि वह कितना तपा है उस चमक के लिए। ऐसा ही सफलता के साथ होता है। सबको चका -चौंध दिखती है। संघर्ष कोई देख नहीं पाता।
बात सपनों की हो रही थी। मैं धीरे-धीरे बड़ी हुई। पर सपना अभी भी वही आँखों में बसा था। वकील बन जाऊं , बस वकील - पापा की तरह। लेकिन समाज में बहुत रुकावटें थीं। या कहूं कि बहुत त्रुटियां थीं। मम्मी को, भाई को डर था समाज की कुदृष्टि से मुझे बचाना चाहते थे इसीलिए मेरा सपना उनकी उलझन बढ़ाता था। फिर भी उन्होंने मेरा साथ दिया। लॉ कॉलेज की प्रवेश-परीक्षा भी दिलवाई। साथ साथ एक और सपना भी पनप रहा था - मेरी मम्मी का सपना मुझे लिटरेचर यानि साहित्य पढ़ाने का। उन्हें बचपन से ही इंग्लिश लिटरेचर रोचक लगता था पर उस समय उनके कॉलेज में साहित्य की डिग्री उपलब्ध नहीं थी। पर मम्मी अपना सपना थोप नहीं रहीं थीं मुझे पे। बस मुझे एक विकल्प दिया था की अगर लॉ कॉलेज में दाखिल नहीं हो पायी तो लिटरेचर पढ़ लेना। किताबें तो जैसे मेरे जीने का सहारा थीं। बहुत किताबें पढ़ती थी मैं - पापा अक्सर दिल्ली से लाया करते थे मेरे लिए। तो बस, इंग्लिश होनर्स की भी प्रवेश परीक्षा दे डाली।
अब किस्मत ने कहा की सुनो मुझे भी तो कुछ करने दो। तो हुआ यूँ कि परीक्षा के परिणाम पहले लिटरेचर के आ गए। आखिरी तिथि भी नज़दीक थी दाखिला लेने की। समय कम था। मन में उलझन भी थी मम्मी के। पापा ने मुझे स्वतंत्र चुनाव के लिए प्रेरित किया था। पर समय की कमी मुझ पर हावी हो गयी। और मैंने लिटरेचर में दाखिला लिया। कुछ दिन बाद लॉ का परिणाम घोषित हुआ और मुझे जीवन भर के लिए एक अफ़सोस दे गया कि काश मैं थोड़ा रुकी होती तो आज मैं वकील होती।
पर लिटरेचर ने बहुत सम्भाला मुझे। अच्छे-बुरे समय में किताबों ने बहुत ज्ञान दिया। समाज की जटिलता , स्वभावों की पेचीदगी, विचारों की उलझन, निर्णयों की विवशता - कितना कुछ था किताबों में। आज दुःख नहीं कि सपना पूरा नहीं कर पायी। आज ख़ुशी है कि पापा कि सकारत्मकता मुझ में सम्मिलित हुई। वो खनकती हंसी मेरी न हो सकी पर मेरे जीवन को पल-पल अलंकृत करती रही। मुझे कहती रही कि अफ़सोस मत कर, बस ज़िन्दगी जी ले।
This post is a part of Write Over the Weekend, an initiative for Indian Bloggers by BlogAdda.’
You might also like
भगवान
गुब्बारे-वाला
रेत के घर
सुबह-शाम सपने देखती कि मैं भी काला कोट पहन कचहरी जा रही हूँ। अदालत में अपनी दलीलों से सबको हरा रही हूँ। कि पापा की तरह समाज में मेरी भी पूछ है , रुतबा है।
आज जब सोचती हूँ तो लगता है कि वकील बनने से ज़्यादा मैं पापा की छवि चाहती थी। पापा की लुभावनी छवि - मुस्कुराता चेहरा, बेबाक हंसी, निडर व्यक्तित्व , सकारात्मक दृष्टिकोण। आखिर वही तो था उनकी सफलता का कारण। और मैं बचपन की मासूम अनभिज्ञता में दोनों को एक समझ बैठी।
रातों-रात नहीं बना था पापा का रुतबा। न जाने कितनी रातें पापा ने जाग कर गुजारीं होंगी। न जाने कितनी किताबें जो पापा के दफ्तर की शोभा में चार चाँद लगाती थीं, पापा ने पढ़ी होंगी। और न जाने कितनी बार नाकामयाबी की ठोकर भी खायी होगी। मैं तो बच्ची थी। मुझे सिर्फ पापा की खनकती हंसी सुनाई देती थी। मुझे बस मम्मी के स्नेहित स्पर्श हर्षाता था। मुझे बस भाई के संग मस्ती भाती थी।
पापा कभी कचहरी के किस्से घर पर नहीं लाते थे पर यह जग-विदित था कि पापा कि अपनी साख थी। पर पापा ने बहुत संघर्ष किया था यहाँ तक पहुँचने के लिए। और मम्मी ने उनका पूरा साथ दिया था। मम्मी बताती हैं कि पापा ने वकालत शुरू ही की थी और मेरे दादाजी का निधन हो गया था। पर पापा ने हिम्मत नहीं हारी। दिन-रात मेहनत करते थे। किराए के घर के पैसे चुकाने के लिए गुल्लक में पैसे रखते। घर में गैस का पहला सिलिंडर मम्मी की आमदनी से आया था। मम्मी कॉलेज में पढ़ाती थीं। पापा के पास आने-जाने का साधन भी नहीं था तो किसी और के साथ जाया करते थे। एक दिन उसने मना कर दिया। पापा का मन आहत हुआ और पापा ने स्कूटर खरीदा। मम्मी और पापा जैसे उस दुपहिए वाहन के दो पहिए थे। एक-दुसरे का मज़बूत सहारा। एक के बिना दूसरा अधूरा।
कहते हैं न कि सबको हीरे की बस चमक दिखाई देती है। सब भूल जाते हैं कि वह कितना तपा है उस चमक के लिए। ऐसा ही सफलता के साथ होता है। सबको चका -चौंध दिखती है। संघर्ष कोई देख नहीं पाता।
बात सपनों की हो रही थी। मैं धीरे-धीरे बड़ी हुई। पर सपना अभी भी वही आँखों में बसा था। वकील बन जाऊं , बस वकील - पापा की तरह। लेकिन समाज में बहुत रुकावटें थीं। या कहूं कि बहुत त्रुटियां थीं। मम्मी को, भाई को डर था समाज की कुदृष्टि से मुझे बचाना चाहते थे इसीलिए मेरा सपना उनकी उलझन बढ़ाता था। फिर भी उन्होंने मेरा साथ दिया। लॉ कॉलेज की प्रवेश-परीक्षा भी दिलवाई। साथ साथ एक और सपना भी पनप रहा था - मेरी मम्मी का सपना मुझे लिटरेचर यानि साहित्य पढ़ाने का। उन्हें बचपन से ही इंग्लिश लिटरेचर रोचक लगता था पर उस समय उनके कॉलेज में साहित्य की डिग्री उपलब्ध नहीं थी। पर मम्मी अपना सपना थोप नहीं रहीं थीं मुझे पे। बस मुझे एक विकल्प दिया था की अगर लॉ कॉलेज में दाखिल नहीं हो पायी तो लिटरेचर पढ़ लेना। किताबें तो जैसे मेरे जीने का सहारा थीं। बहुत किताबें पढ़ती थी मैं - पापा अक्सर दिल्ली से लाया करते थे मेरे लिए। तो बस, इंग्लिश होनर्स की भी प्रवेश परीक्षा दे डाली।
अब किस्मत ने कहा की सुनो मुझे भी तो कुछ करने दो। तो हुआ यूँ कि परीक्षा के परिणाम पहले लिटरेचर के आ गए। आखिरी तिथि भी नज़दीक थी दाखिला लेने की। समय कम था। मन में उलझन भी थी मम्मी के। पापा ने मुझे स्वतंत्र चुनाव के लिए प्रेरित किया था। पर समय की कमी मुझ पर हावी हो गयी। और मैंने लिटरेचर में दाखिला लिया। कुछ दिन बाद लॉ का परिणाम घोषित हुआ और मुझे जीवन भर के लिए एक अफ़सोस दे गया कि काश मैं थोड़ा रुकी होती तो आज मैं वकील होती।
पर लिटरेचर ने बहुत सम्भाला मुझे। अच्छे-बुरे समय में किताबों ने बहुत ज्ञान दिया। समाज की जटिलता , स्वभावों की पेचीदगी, विचारों की उलझन, निर्णयों की विवशता - कितना कुछ था किताबों में। आज दुःख नहीं कि सपना पूरा नहीं कर पायी। आज ख़ुशी है कि पापा कि सकारत्मकता मुझ में सम्मिलित हुई। वो खनकती हंसी मेरी न हो सकी पर मेरे जीवन को पल-पल अलंकृत करती रही। मुझे कहती रही कि अफ़सोस मत कर, बस ज़िन्दगी जी ले।
Image Source |
This post is a part of Write Over the Weekend, an initiative for Indian Bloggers by BlogAdda.’
You might also like
भगवान
गुब्बारे-वाला
रेत के घर
Interesting read Sunaina. The best thing happened to both of us is - our fathers never imposed their choices on us. They have given the best gift to us - they believed in our choices and potential.
ReplyDeleteTrue Vishakha.....the best gift ever.....
DeleteWhat one has in share, we get. Interesting n inspiring. Good luck Sunaina
ReplyDeleteYou are right to a certain extent....but life is still about taking that extra step, just in case....
DeletePaheli baar hindi mein blog post padh rahi hoon. Bahut Khushi huyi .. hindi me blog padhthe huye.
ReplyDeleteWill keep coming back for more... How i envy you ... i have so lost touch with my mother tongue...
So glad to hear that Jayanthi...I have fallen in love with Hindi when I started writing in English...it is ironical, isn't it.....but still I wish to write in both the languages flawlessly...just trying to improve my Hindi by attempting this....
DeleteVery warm memories, Sunaina! Lovely read in Hindi :)
ReplyDeleteThanks Esha....
DeleteHey Sunaina,
ReplyDeleteI am too much taken away by English that I hardly read Hindi. Now when pre-schooling time for my Kid is coming near. I am realizing the importance of it. Loved reading it. It reinforced my Hindi reading.
Thanks for your candid words Upasna....:)
DeleteHindi mein padhne ka alag hi mazaa hai. Loved it! :)
ReplyDeleteGlad you liked it...
DeleteI sometimes feel that I could have been a better person had I taken literature instead of a professional course. A the end of the day, it is the mindset which matters. Loved reading it.
ReplyDeleteI am so happy that you can read Hindi....Literature does change you....but without having studied that, you are still thoughtful and good as is evident in your writings....
Delete9th कक्षा में पढ़ते समय मैंने अपने चाचा जी से कहा था, आजकल बड़ी बोरियत होती है। वो तुरंत अपने साथ मुझे जिला पुस्तकालय ले गए और वहां का सदस्य बनवाया।
ReplyDeleteबस तभी से लिखने और पढ़ने का एक चस्का सा लग गया। हिन्दी साहित्य सम्मोहित करने की क्षमता रखता है परन्तु आजकल की 'हिंगलिश सब सत्यनाश करने पर तूली है।
Right Manisha....I love when I am able to read good Hindi as well as good English....the fusion breaks my heart....
Deletewonderful post! loved it :)
ReplyDeleteThanks!
DeleteIt was really warm. Beautiful
ReplyDeleteThanks!
DeleteI loved reading this post and though I haven't got the Hindi keyboard, yeh kahna chahungi ki aapke shabd dil to chu gaye. Woh scooter ke do pahiye wali analogy was so well thought. Wonderful post.
ReplyDeleteThat means a lot Parul...I dont have Hindi kepypad....I use google input tools to type....
DeleteAchhi hindi main bahut dino baad pada. Hum bolte to hindi hain par likhte padhte sab angeezi main hain aajkal. Lagta tha jaise hindi bhool gaye hain. Ab bete ne hindi padhna shuru kiya hai to din bhar sawal rehte hain isko hindi main kya bolte hain, usko kya bolte hain. Jab hindi ke shabd dimag ke kisi kone main itne saalon se chipe hone ke baad khatkhatate hain to atyant harsh ka anubhav hota hai :)
ReplyDeleteAww....that is so sweet Anamika....kahin to chupe hain na shabd....rasta dhoond hi lenge bahar aane ka....:)
DeleteAchhi hindi main bahut dino baad pada. Hum bolte to hindi hain par likhte padhte sab angeezi main hain aajkal. Lagta tha jaise hindi bhool gaye hain. Ab bete ne hindi padhna shuru kiya hai to din bhar sawal rehte hain isko hindi main kya bolte hain, usko kya bolte hain. Jab hindi ke shabd dimag ke kisi kone main itne saalon se chipe hone ke baad khatkhatate hain to atyant harsh ka anubhav hota hai :)
ReplyDeleteWonderful Post.Written beautifully.
ReplyDeleteCheers,
Sriram & Krithiga
Loved it :)
ReplyDeleteLoved it :)
ReplyDeleteLoved it :)
ReplyDeleteThis is such a heart-warming read. One thing that echoed with me - the tip-tap of dad's shoes. Such a delicate observation that brought so much emotions in the narrative.
ReplyDeleteThanks Saru....your reading it filled my heart with delight...
DeleteA lovely tribute to your dad and mom!
ReplyDeleteSuch a heart-warming read Sunaina! Your stories have always made me emotional and the ones about your Dad make me cry. Like I said earlier, there are striking similarities, like your bond with your Dad reminds me of mine. Each and every word of this post is dipped with profound emotions. Its unbelievable but true, that our lives have such similarities, despite living miles away and completely unaware of each other.
ReplyDeleteOne more coincidence I found through this post is, that I too was willing to study law like my Dad but ended up with English literature. Many, I have told you earlier.
Loved reading it again and again. Lots of love and hugs. God bless. <3
Sangeeta...we must have been sisters in our previous births....or maybe some other close relation....its titillating to feel that way...some connection, some invisible thread is holding us together.....!
Delete